तबीयत को नासाज़ बनाया तेरे इश्क़ ने कुछ इस कदर,ना तेरी हा सुन सके ना ना को ना समझ सके...कुछ लम्हे माँगे तूने हमारे इश्क़ पे गौर करने को,दुनिया इस इल्तिझा को ज़ुल्म कहे, फिर भी तुझे मेहेरबान समझ सके!इक अरसा गुज़रा हमारे इश्क़ के इंतेज़ार में,फ़ैसला हा सुनाया; तू मिली, इश्क़ मिला, कुछ नशा हुआ...बाद-ए-इश्क़ हमारा मयखाना जाना हम ना समझ सके!बदहवास हुए तो ये सही सवाल समझ सके...लुत्फ़ तुझ में, तेरी याद के बराबर क्यों नही...?पाना तुझे , तेरी प्यास के बराबर क्यों नही...?तेरी नज़दीक़ी, तेरी दूरी के बराबर क्यों नही...!इश्क़ में तेरे, मेरे इश्क़ की सरक़शी क्यों नही...?
The paradox of insular language
7 months ago
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